‘होरी’ कविता

१५ चैत्र २०७७, आईतवार
‘होरी’ कविता

बासमती राना
पुनर्वास न।पा।१, पुरैना कञ्चनपुर


।।१।।
होरी आइ उमङ्ग भरि फागुनकि पुरनमासिमे
सदभाव जगाइ भयाबहिनिया और परोसिनमे ।।
बच्चनसे लैके बुढेपनको तनमनमे रङ्ग भरि
माँथेनमे कण्डिको टिका मुँहुँनमे मुस्कान धरि ।।
।।२।।
जब बाजो होरीको डङ्का गावँ झुँम पड़ो
मोँढि़नकि साखि पडि़ त गगन गुँज पड़ो ।।
पेरो गुर्खा, घुँघट ओढिँ पैँधि सजि घँघरिया
करेहाओँमे, फेँटा खुबै सुहानि सेति झगिया ।।
।।३।।
साखोमे साखो मिलो, जुडि़ डाहिनसे डाहि
ढोलियाको ढोल सजो त होरी गजबकि रहि ।।
तनमन भर खेलिँ होरी, और खुबै गीत गाइँ
बरकत होमएँ धनजनमे सबके दुवा बे दइँ ।।
।।४।।
जिजा सारि और सैनार मित मिलके खेलिँ होरी
फगोहा दैके सुखदुःख बाँटि संस्कार बडि़ प्यारी ।।
आसपरोसमे हटकना भए सम्बन्धके हात बढेÞ
दिलकि बात दिलसे सुनिँ होरीके सब रङ्ग चढेÞ ।।
।।५।।
निरालि हमर होरी यारौ निरालि जा संस्कृति
विश्वास जुगो रहाए यारौ दुर होमएँ विकृति ।।
परिवारमे आत्मियता बढैए, लैए सुख सम्वृद्धि
दुर्जनसे बचैए हुरकामैंया दिए सबके सद्बुद्धि ।।
।।६।।
हर साल ऐए हुरकामैंया आसरा हमर जिन तुरिए
फगुनहाटे पुरनमासिमे ऐए खकडेÞहरा भोर जैए ।।
असत्य उपर सत्यकि जितकि कामना तए करिए
गावँ, समाज और हमर चोला स्वर्गसे सुथरो बनैए ।।

Wedding Story advertisement Of Jems Movies & Photo Studio