सामनकाे डाेला और तिज पर्वकाे महत्व

२२ श्रावण २०८१, मंगलवार
सामनकाे डाेला  और तिज पर्वकाे महत्व

तिज मनानको परम्परा औ मान्यता 

हर कोइ कविलामे मनाओ जान बालो त्योहारको अपनो अपनो मान्यता और विश्वाश होत हए । विसि राना थारु कबिलामे भी तमान मेलके त्योहार मनाओ जात हए । जौन त्योहार मैसे राना थारु जनानिके मानन बालो खास त्योहार तिज हए । जा त्योहार पुर्खन दिनसे सबए दिदि बहिनि मिलके  मनात आइँ हएँ ।

रानाथारु कविलाकि दिदि बहिनिया तिज त्योहार एक त्योहार अकेलो नाए कि एक उत्सवके रूपमे मानत हएँ । जो अपन भैया भातिजोके रक्षा हेतु और लम्बि उमरके ताहिँ ब्रत बैठत हएँ  ।

तिज मनानको परम्परा

राना थारु काबिलामे तिज मनानको परम्परा कब और कहाँसे चलो आओ हए, जा सवालमे अलग अलग कहानिया सुनन मिलत हएँ ।

सेहरी बैठन बाले छल्लु राना कहत हएँ कि,

तिज सतजुगसे चलो आओ हए । सतजुगमे मनु नामकाे एक राजा रहए । बो एक दिन जंगलमे गओ । डगरमे एक दरिया पडि। हुँना सरस्वती माता बेहमैया बनके बैठि और गाँठि बाँध बाँधके पुहाए । कुइ गाँठि पुहिजाएँ और कुइ अटक जाएँ। तव बेहमैया कहए कि अरे जक त जोडी फुटगै । होना ठाडो जा सब किरला मनु देखए तव बो जाएके पुँछि कि तए कौन हए और जा का कर रहो हए ? तव बो कहि मएँ बेहमैया हओँ । जा सामनको महिना हए । जा महिना भर मिर जहे कार हए । तव राजा कहि जक तव भेद बताओ ? तव बेहमैया कहि कि जौन जनानि जा महिनामे ब्रत रहैगि बोक भैया भतिजोके उमर बढैगि । तब मनु राजा लौटके घर आओ औ तिज मनबाइ। तबहिसे बहे परम्परा राना थारु संस्कृतिमे चलो आओ ।

कलकत्ता बैठन बालि जानमती रानाके तिज विशेष एक लेखमे लिखत हएँ कि, बहुत पहिले परापुर्वकालमे बेहमैया नावकि दिउतिन बुढिया रहए । बो तिजको ब्रत बैठि रहए और तबहिसे जा त्योहारको सुरुवात भव हए कहत हएँ । नदिया किनारे बैठि बेहमैया गडरौँदा जातको घाँसमे गाँठि बाँधके अपन भाैया भतिजोके नामसे पुहाइ । बो नपुहए तव बेहमैया रोन लागए और जब बो गाँठि पुहिजाबए तव बो हँसन लागए । जा बात  गौरापार्वती मृतलोकमे बड ध्यानसे देखत हए । तव गौरापार्वती ढिगै जाएके बेहमैयक रोन और हँसनको कारण पुँछि । तव बेहमैया बतात हए कि, जौनक नावसे गाँठि बाँधक पुहात हएँ अगर पुहिजात हए तव बो अपन उमर भर बचैगो और जौनक नपुहत हए तब बो अपन उमर भर नबचपाबैगो । तहि मएँ कभि रोत हओँ और कभि हँसत हओँ । तव गौरापार्वती भैया भतिजोके बचान ताँहि  ब्रत बैठन और दीर्घायुके कामना करन गडरौँदामे गाँठि बाँधके नदियम पोहान चलन सुरुवात करबाइ । तबसे  रानाथारु कबिलामे तिज त्योहार मनात हएँ ।

एक बात कहे सकत हएँ कि राना थारु कबिलामे तिज मनानको परम्परा परापुर्व कालसे पुर्खन दिनसे चलो आओ हए । तबसे लैके आजतक राना थारु दिदि बहिनि तिज मनात आइ हएँ ।

तिजखानि

कुछ दसक पिछु जाएके देख सकत हएँ कि

बिहन लगाए सेकतएक दादा भैया भतिजो अपनि दिदि बहिनियाके लेनक चले जात रहएँ । अभे भि लेनक जात हए पर तिजखानि पहिले हानि महिना महिना भर ना खेलपात हएँ । पहिले उनके एकबरि अट्टमि खबाएके पठौत रहएँ । तिजखानि दिन दिनभर लखबारि करएँ और खुब डलैया ढुकरिया, सिना सिलत रहएँ  । जब साँझ होए खानु खाएखुइके रातक अपन दादा भैयनसंग डोला डुल्तिँ और गीत गैतिँ । अपनो दुःख दर्द गीत मार्फत खुब दिल खोल बयाँ कर्तिँ । ऐसि बिसेसकर पाखभर डोला डोलत रहएँ । जब तिजखानिनके विदाइ हुइति त उनकि बिनो भओ चिज और घरमे जित्का जुराए उत्का जरावर देत रहएँ जो अभे भि कायम हए ।

सामनको डोला

सावन महिनामे सावन डोलाको विशेष महत्व हए । खेती निप्टाएके गाउँ गाउँमे सावन डोला पडो जात हए । विशेषकर सावन डोला ब्याहि लौँडियनके मैकोके याद दिलात हए । अपन दुःख सुख बाटन दादा भैयनसँग जिन्दगीके कुछ पल बितान एक मौका लैके आत हए । जिन्दगीके कुछ ऐसि घटना कुछ ऐसि बात हए जो दिदि बहिनि अपन मैँके ना बतकाए सकत हएँ जो गीतके मार्फत अपन दिलकि हाल बतलात हएँ । जो बचपनकि सखी सहेली हएँ उनसे  मिलाभेँटि हँसि मजाककाे समो हए सावन डोला । हर दिदि बहिनिकि उमिद हए कि सावन डोला डरो हए अब मैँकेसे भैया भतिजे लेन आतए हएँ । सावनमे हर जनानिके मैँकोक याद आत हए । सावन डोला हर तिजखानिके मन लोभात हए ।

पहिले पहिले डोलाके ताहिँ जमान लौँडा लौँडिया बनमे बैब काटन जामएँ और मोहराइनक पट्ठा छुटाएके बोक गभुवा निकारएँ । घरे लाएके बोक खुब थुर थुरके गुन्हारि काढके बरहा भाँगएँ । तवखि बो बरहासे सावन डोला डारत रहएँ । डोलामे चार खब्बा, एक बढेरि और एक पटेलासे डारत रहएँ । जा समोमे बैब काटन, पठ्ठा छुटान चलन छुटिगओ हए । बस बजारसे रस्सि लाएके डोला डार लेत हएँ ।

डोलामे चढनसे पहिले जनानि सुरुम चिटि डोँकाके डुलात हएँ । ताकि डोला डोलनसम पाखभर डोलन बालेन कि घुम्नि ना लागए या कुछ गडबड ना होए सब ठिक ठिक रहए । तौखे डोलामे चढके सिम्रौनि गीतसे डोला डोलन सुरु करत हएँ । डाडिया, चिल्खा, बैरासो, मुरिला, बाह्र मासि जैसि तमाम गीत गाएके जन और जनानि खुब रमात हएँ । और डोला कि विदाइ तिजके दिन करो जात हए ।

जनविश्वास: तिज ब्रत और डोलाकि बिदाइ

राना थारु कविलामे सावनकि उजियारि तृतीयक दिन तिज मनान परम्परा हए । जा कविलाकि जनानि तिजमे ब्रत बैठनसे   ददा, भैया, भतिजोक उमर बढत हए कहिके जनविश्वास रहि आओ हए। जहे हेतुसे तिज ब्रत बैठत हएँ । औ बहे साँझक नदिया किनारे जाएके ब्रत खोलत हएँ । ब्रत बैठि दिदि बहिनि ब्रत खोलन ताँहि  सिमहि, गुलगुला, पुरि लगायत परम्परागत पकवान पकात हएँ ।

डोला कि बिदाइ भि तिजयके दिन करो जात हए जो डोलक मुँडिया काटके करत हएँ । सुरुमे और और गीतमे एक झुँका डोला डोलक अन्तिममे डाँडिया गाएके समापन करत  हएँ । तौखि गाउँकि पधनिँया या भलमन्सहिया या गाउँके कोइ एक अगुनिँया डोलाके एक किनारे सिमहि, पुरि, चलनौँसा, लौँङ्ग, घिउ, धुप चढाएके औ पानी उरकके डोलक बरहाके एक कुन्छ काटत हएँ जौनसे मुँडिया काटनो कहत हएँ। मुडियाके लैके तव अपनो झुडकि बाँधत हएँ । नदिया किनारे गढरौँदा जातको जंगलामे ब्याहि सात गाँठि बाँधत हएँ औ बिन ब्याहि पाँच गाँठि बाधत हएँ । बो गाँठमे सिम्हि, पुरि गुलगुला और चल्नौसा, घिउ , चिनी चढात हएँ औ पानी उरकके  संगए तोर लेत हएँ ।कहत हएँ कि झुडकिके सुनो हात ना पठौत हएँ तभिमारे नदियामे जाएके चाँदीके अँगुठि, पामरि, मालिमाला या सिक्का जो होएसे भि हाथमे चाँदी लैके पुहात हएँ और कहत हएँ कि, ले रि नदिया मिर झुडकि पुहात लैचलो जैए । जैसि हर बढए हर कुँढ बढए मिर भैया भतिजोके उमर बढए । ऐसि कहत डोलक मुँडिया औ झुडकि पोहाए देत हएँ । तबसे सावनको डोला विसर्जित होत हए । हुन जित्तो ब्रतहारी हएँ हुनै किनारे बैठके ब्रत तोडत हएँ । तौके घर लौटत हएँ ।

पटाकि बेढनो

तिजमे सिम्हि पुरि माँगन ताहिँ गाउँके लौँडा पटाकि बेढत हएँ । पटाकि पुँजाके तिन लरको बटके बनाओ जात हए । जब ब्रतहारि ब्रत खोलके आन लागत हएँ तव लौँडा पटाकि बेढो करत हएँ और झुडकि छिरान बालिनके डगर गेँसके सिम्हि पुरि माँगत हएँ । बे जबसम ना देहएँ तबसम छिरन ना देत हएँ । अगर बिन सिम्हि पुरि दए छिरन कोसिस करत हएँ ता पटाकिम लपेटक गिरात हएँ । तभि सिमहि दैके डगर छुटानो अकलमन्दि हए ।

अन्तमे

बे दिन ना रहे बे समो ना रहे पर हमारि परम्परा अभेसम शेष हए । जौनके संरक्षणके भागिदार हम सब हएँ । पहिले अपने अपने गाउँमे अपने हिसाबसे तरत्योहार मना लेत रहएँ पर अब राज्य स्तरमे अपनि अधिकार और पहिचान कायम करनके ताहिँ त्योहार मनानमे एक रुपता लान हम सबकि जिम्मेदारी हए ।

राना थारु कबिलामे सामनको डोला एक पाख अर्थात जद्धामे १८ दिन डोलो जात हए पर आफत जा हए कि स्कुल पढनबाले लौंडा लौंडियनकि झुँड रात रातके महिना महिनाभर डोलत रहात हएँ । संस्कृति बढावा देन अच्छि बात हए पर अपनो मुल्य मान्यताके नाव चढके बिकृति फैलानो अपन संस्कृति प्रतिको गद्दारि हए । तभि हर गाउँक अगुवनके जा बातमे गौर करन जरुरि दिखात हए ।

सामनको डोला औ तीज एक दुसरेसे जुडे हएँ । जो हमर साँस्कृतिक मान्यतामे भया बहिनिया बिचको प्रेमसे बँधो हए ।  अगर हम जा तिज परम्परा छोड देहएँ तव भया भाहिनिया बिचकाे सम्बन्ध, पारिवारिक एकता, आपसि विश्वाश सब नष्ट कि ओर जाए सकत हए । जा नाता जा रिस्ता बर्करार रखानके ताहिँ तिज जैसे हर तरत्योहार और मान्यता हमेसा जीवन्त रहन जरुरी हए ।

लेखक : लक्ष्मि राना (शिक्षक)

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