रानाथारू समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार होली

६ चैत्र २०८१, बिहीबार
रानाथारू समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार होली

रानाथारू समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार होली:-
रानाथारू समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार होली है। यह त्योहार इसलिए बड़ा है कि माघ महीने की पूर्णमाशी को होली की स्थापना की जाती है तथा चैत्र माह की चरांई के दिन होली की विदाई की जाती है, इस बीच होली स्थापना से लेकर खक्डेहरा तक 38 दिन युवक- युवतियां आपस में मिलकर होली खेलते हैं माघ पूर्णिमा को होली की स्थापना तथा फाल्गुन पूर्णिमा को होली का दहन किया जाता है होली पूजा फगुहा, दावत खक्ड़ेहरा में समापन कर चैत्र माह की चंराई के दिन होली की विदाई की जाती है। यह त्योहार संस्कार एवं आपस में मन-मुटाव एवं वैर भाव को अन्तर मन से भुलाकर आपसी प्रेम बढ़ाने से सम्बन्धित है।
मिथक और जन विश्वास:-
रानाथारू समुदाय में होली मानने की परम्परा आदि काल से है यह हिन्दू धर्म से सम्बन्धित पौराणिक प्रसंग से जुड़ा हुआ है। इसके विशेष दो प्रसंग है पहला यह कि राजा हरणकश्यप के पुत्र प्रहलाद विष्णू भगवान के बहुत बड़े भक्त थे जबकि राजा अपने को स्वयं भगवान मानते थ,े हरणाकश्यप चाहते थे कि उनका पुत्र उनका गुण-गान करे एवं उनकी ही पूजा करे। लेकिन प्रहलाद विष्णू भगवान की पूजा एवं गुड़गान करते थे।
राजा हरणाकश्यप यह नही देख सके तथा प्रहलाद को मारने हेतु उपाय ढ़ूढने लगे। एक दिन अपनी ही बहन होलिका को विष्णू भक्त प्रहलाद को मारने हेतु भेजा होलिका को आग से न जलने का बरदान प्राप्त था जिसके कारण वह फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन अपने भतीजे प्रहलाद को गोद मे लेकर चादर ओढकर आग के ढेर में बैठ गई।
परन्तु उस आग के ढेर में होलिका जलकर भस्म हो गईं एवं भक्त प्रहलाद सुरक्षित बच गये उक्त से यह सिद्ध हुआ कि अन्याय से न्याय की जीत हुई, उसी दिन से प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन होलिका दहन कर अगले दिन उसका टीका लगाकर असत्य पर सत्य की विजय को, उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
दूसरा प्रसंग यह है कि भगवान श्री कृष्ण फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन मथुरा से लेकर गोकुल तक गोपियों के संग रंगों के साथ होली खेला करते थे। जिसके देखा देखी फाल्गुन पूर्णिमा को रंग व अबीर गुलाल लगाकर त्योहार मनाते हैं, यहीं से घर-घर में मथुरा से होली आने का जन विश्वास है असत्य कितना भी शक्तिशाली हो परन्तु एक न एक दिन सत्य की ही विजय होती है। फाल्गुन पूर्णिमा को आपसी मन मोटाव बैर को होलिका दहन के साथ जलाकर नये साल की सुरूआत आपस में सदभाव प्रेम सम्बन्घ कायम कर सहयोग व विश्वास स्थापित कर जन विश्वास के साथ होली खेलते है।

होली की स्थापना:-
माघ पूर्णिमा के दिन गांव के ग्राम देवता भुइंयां के नजदीक कन्डा/उपला, लकड़ी,मिठाई तथा पूरे गांव से उठाई गयी भेंट (गांव के चैकीदार द्वारा प्रत्येक घर लौंग घी व अच्क्षत्/चावल) चढ़ाकर होलिका माता की स्थापना की जाती है उसी दिन से रानाथारू समाज जिन्दा होली खेलना शुरू कर देते है।
होली दहन:-
मंगलवार दिन को छोड़कर फाल्गुन माह पूर्णिमा की शाम को होली का दहन किया जाता है। होली दहन करने लिए गांव के पधना द्वारा पूजा के लिये मिठाई, पूड़ी, तथा पुनः चैकीदार द्वारा पूरे गांव से उठाया गया भेंट (पूजा सामग्री) तथा गंगाजल लेकर युवाओं के टोली के साथ होलिका के पुतले को विधि-विधान से पूजा करके जलाया जाता है, जलती हुई होलिका का जलता हुआ अवशेष लेकर एक सांस में दौड़कर कुआं अथवा तालाब में डाला जाता है तत्पश्चात् वहीं पर उपस्थिति जनों में मिठाई व पूड़ी बाँट कर खाया जाता है।
होली का टीका:-
होलिका दहन के अगले दिन जली हुई होली के स्थान पर गेंहूँ व जौं आदि की हरी पौध डाल कर टीका लगाया जाता है तथा इसी का एक दूसरे को टीका लगाकर होली की शुभकामना देते हैं। युवा लड़के मतबरिया और लड़कियां छैला के रूप में यही पर कुछ सयम के लिये होलिका दहन के स्थान कम से कम सात फेरे सीधे तौर में तथा सात फेरे उलट लगाकर होली खेलते हैं, इसके बाद पूरे रास्ते में मंगल गीत गाते हुए पधना/ भलमन्शा के घर आकर होली खेलते है। विशेष परिस्थिति को छोड कर तीन दिन तक पूरा रानाथारू समाज बैलों आदि से कोई कार्य नही करते है, अगर कोई करता है तो समाज द्वारा दण्डित किया जाता है।
जिन्दा होली- मरी होली:-
होली स्थापना के दिन से होली न जलने तक शाम खाना खाकर ग्राम के सम्भा्रन्त जनो के घर में जाकर ढोल की ताल में मंगल गीत गाकर होली खेलते है। जिसे जिन्दा होली कहते है तथा होली जलने के बाद से खक्डेहरा तक दिन में भी पधना/ भलमंशा आदि के घर आठ दिन तक होली खेलने को मरी हुई होली खेलना कहते है, इन आठ दिनो में जिनके घर होली खेली जाती है उनके द्वारा सामर्थ अनुसार होली टीम तथा दर्शकों की खाने पीने की व्यवस्था करती होती है। होली में जो भी मंगल गीत गाये जाते है व रामायण, महाभारत,गीता, पुराण की कथाओं से आधारित गीत गाये जाते है, जिसमें विभिन्न प्रकार के अभिनय जैसे ठडौवाँ होली, मतबरिया, लोहकौवाँ,सादा होली खिचड़ी होली बधाई होली गढ़वाली होली खेली जाती है।
होली मे पूजा पाठ:-
होली मे पूजा अपने कुलदेवता के अनुसार होती है यह कुलदेवता की पूजा है जोकि सबके घर में नही होती है जिसका कुलदेवता होली की पूजा लेता है वही पूजा करता है कुलदेवता अनुसार (होली स्थापना से लेकर) कोई जिन्दा होली को पूजता है तथा कोई मरी होली को पूजता है, पूजा सामग्री में मिठा युक्त पूड़ी, घी,पानी तथा कण्डे की आग से अगियारी बनाकर पूजन करते है।
खक्डेहरा:-
होली दहन के आठ वे दिन सप्ताह के कोई भी दिन पड़े उस दिन खक्डेहरा पर्व मनाया जाता है खक्डेहरा के दिन समय पाँच बजे के बाद कच्ची मट्टी की सात-सात गोली झाड़ू की सींक (ऊरई) में एक एक कर सात गोली पिरोही जाती है एवं परिहारी (देशी हल का निचला भाग) तथा मिट्टी के तीन दीये होते है जिसमें एक दिया में सतनजा (चना,मटर,जौं,गेहूँ,लाही,मसूर,मक्का) रखते है तथा दूसरे दिये में गांव से उठाई गयी भेंट (गांव के चैकीदार द्वारा प्रत्येक घर लौंग घी व अच्क्षत्/चावल) रखते है तीसरे दिये को जलाया जाता है। तथा बैठा बन्नी (ऊरई की बन्नी) फूटे हुये घड़े के पात्र मे रखकर उसके साथ में एक लोटा पानी लेकर गांव के पधना/भलमंसा के द्वारा गांव के दक्षिण अपने गांव की हद/सीमा से बाहर सड़क में अगियारी देते है, एवं तत्पश्चात परिहारी से उक्त पूजन सामग्री फोड़ी जाती है।
जो भी जन समुदाय घर से खक्डेहरा फोड़ने जाता है वह भी घड़े का टूटा हुआ पात्र साथ मे लेकर जाते है। यह आस्था है कि गांव में महामारी, टोना, टटका, अंधरी,धुंधरी,लंगड़ी,लूली आदि (मांसिक व शारीरिक विकार वाले) गांव मे न हों गांव के पधना/भलमंसा द्वारा सड़क में पूजन सामग्री कतारबद्व लगाते है तथा उसको परिहारी से फोड़ते हैं।वहाँ से चलते समय उस स्थान को पलट कर नही देखते है यहीं से होली की विदाई होती है। इस दिन तक पूरा रानाथारू समाज बैलों आदि से कोई कार्य नही करते है।
पूर्वज बताते है कि खक्डेहरा के दिन जिस के घर में खुशी जैसे बच्चा का जन्म होन एवं पालतु जानवर का बच्चा देना आदि शुभ होने पर खक्डेहरा फोड़ता है। वहीं जिसके घर में अप्रिय घटना हो की दशा में खक्डेहरा नही फोड़ते है। यहकि गांव के हर घर से खक्डेहरा फोड़ ने की रस्म अदायगी नही की जाती है।

फगुहा और दावत (हटकना):-
होली पर्व में फगुहा का विशेष महत्व होता है होली में फगुहा का देना व लेना एक संस्कार है। फगुहा लेने देने का दो प्रकार का चलन है पहला यह है कि होली जलने के बाद खक्डेहरा तक आठ दिन फगुहा मानने का चलन है जिसमे होली खेलने वाली युवतियाँ सुबह के पहर में गांव के पधना, भलमंसा, चैकीदार एवं अन्य गाँव के राहगीर आदि से फगुहा माँगती है तथा शाम के पहर में होली खेलने जाती है।
दूसरा यहकि जीजा व नन्दोई, के द्वारा साली, ठकुराईन (बड़ीसरहज) सरहज, तथा मित्र के द्वारा सइनार(मित्र की पत्नी) को फगुहा दिया जाता है। इस के साथ ही दावत का दौर शुरू होता है है। जिससे आत्मियता सौहार्द का आपसी महौल बनता है।
दावत मे मेहमान कोअपने घर में बुलाया जाता है जिसे हटकना कहते है विशेषकर अपने इष्ट मित्रघर परिवार सगे सम्बन्धि तथा फगुहा देने वाले जीजा बहनोई मित्र को अनिवार्य रूप से बुलाया जाता है मान्यता यह है कि फगुहा देने वाले को खाने पर न बुलाने की दशा में पाप के भागी बनते है। वर्तमान समय में फगुहा देने एवं दावत करने की परम्परा में कमी आ रही है।
होली की अन्तिम विदाई:-
होली की अन्तिम विदाई चैत्र माह के शुक्लपक्ष के प्रथम सोमवार अथवा गुरूवार को चरांई (पूरे गांव के ईष्ट देवता की पूजा) करते है उस दिन गांव के प्रत्येक घर से मिसउला (अन्दी धान का विशेष मीठा चावल) एवं अपनी पसन्द अनुसार सब्जी तथा विशेष कर मछली पकाकर गांव के बाहर चिन्हित स्थान पर दिन भर रहते है दिन के तीसरे पहर में भर्रा (ओझा) के द्वारा पूजा पाठ करने के बाद गांव की सभी महिलायें होली की विदाई का मंगल गीत ’’आज होली गईरे बलमु परदेशय‘‘ गाते हुये, आम की डाल लेकर पधना के घर तक आतीं है उस आम की डाल को पधना के घर श्रद्धा शुमन के रूप में डाल कर अपने अपने घर को बापस चली जाती है। मान्यता यह है कि उस दिन से होली फिर मथुरा चली जाती है तथा अगले वर्ष फिर होली आने की प्रतीक्षा रहती है।

                                         कलम से 
                                        ओम प्रकाश राणा (पधना /प्रधान) 
                                        निझोटा, गौरीफण्टा, खीरी, उ.प्र.
                                         मो0 - ़918317003577

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