कविता-प्रित लगन

७ माघ २०८०, आईतवार
कविता-प्रित लगन

प्रेम पुजारिन बनिगओ मिलो आज उपहार
प्रेम पामरी पैँधके भाजत आओ भर दुपहार 

पिया पिया जिया कहए नाचए भितर मोर
रैन दिवस घर करे  जल्द आओ मेरे ओर
प्रित पुरानी जा रहए आज लओ पहिचान
पिया कि मिठि बोलसे भओ हओँ दिवान

धीरजकाे कजरा लगाए आओ पियाके गाँव
सिलकि सिन्दुर भरके जोडओँ पियाके नाँव
फागुन मास लचपचो अब लागए आममे मौँर
मेरे जिन्दगानी तेरे नाम ना आबाए कोइ और

प्रेम रंगमे मएँ रङ्गो ना और रंग अब खिलए
मोके घायल कर दियो जब नैनसे नैन मिलए
नैनन् को जा धरम हए दिलकि बात बतिआए
मुहनसे कुछ ना बोलके बिन कहे कहिजाए

प्रितके आगे शिस् झुकए जौन उतार भुइँ धरो
धरा चाह आसमा करए सुखा समोमे मन हरो
भोर भओ दिन चढो साँझके मलिन होनो रित
बढत जाए धुकधुकी लगि जो हए तुमसे प्रित

आँख बन्द मएँ करओँ सुनओँ पाँवके झन्कार
भुँख प्यास अब ना लगए करओँ का उपचार ।।।

लक्ष्मी राना 

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