राना थारू समाज में चरांई पर्व की उत्पत्ति

१५ जेष्ठ २०८२, बिहीबार
राना थारू समाज में चरांई पर्व की उत्पत्ति

कलम से ………………..
ओम प्रकाश राणा पधना/प्रधान निझोटा
वरिष्ठ उपाध्यक्ष थारू जनकल्याण संस्था
लखीमपुर -खीरी उ.प्र.

रानाथारू सामुदायमे चरांइ तिन बार मनाइ जाति है।
चैति चरांई – प्रथम चरांई चैत माह में सोमवार व बुहस्पतिवार को होती है। जिसमें अविवाहित लड़की व रिस्तेदारों की विवाहित लड़की जो भी एक माह आठ दिन के होली पर्व को मनाने हेतु गांव में (निन्हारो) आती है। यह सब गांव से बाहर चराई मनाने के स्थान पर मिष्ठान भोजन के साथ एकत्रित होती है गांव के भर्रा द्वारा पूजा के बाद मिष्ठान भोजन को एक दूसरे को परोसती है। एवं मूनुहार से होली के मंगल गान करती हैं जिससे समस्त सखी सहेली में अपसी शौहार्द बढता है, फिर जाने कब मुलाकात हो का अहसास होने पर गमहीन हो जाती है। होली का पर्व अच्छा बीतने पर एक दूसरे को बधाई देती हैं तथा उसी दिन होली पर्व को भी बिदाई देती है। एवं अगले वर्ष फिर मिलने की कामना करती हुई। नगर की भुइया में आम की पत्ती को डालकर अशीष नवाकर गांव के मुखिया पधना के घर उनसे मिलने जाती है। तथा भेंट स्वरूप आम की पत्ती सर्मपित करती है। एवं होली के पर्व का अच्छा प्रबन्ध करना तथा भयमुक्त सौहार्द पूवर्क होली मनवाने हेतु पधना को धन्यबाद देकर अपने अपने घर को बिदा हो जाती है।


बैशख्खि चरांई – द्वितीय चरांई बैसाख माह में सोमवार व बुहस्पतिवार को होती है। जिसमें खास कर नव विवाहित बहुए जिनका प्रथम गौना होता है वह गांव से बाहर चराई मनाने के स्थान पर मिष्ठान भोजन के साथ एकत्रित होती है गांव के भर्रा द्वारा पूजा के बाद मिष्ठान भोजन को एक दूसरे को परोसती है। जिसे नई बहू के परिचय समागम होता है। तथा शादी होने की खुशी में सभी के स्तर से दी गयी मिठाई को एकत्रित कर सामूहिक रूप से बाॅटी जाती है। तथा नगर देवता से परिचय हेतु नगर की भुइया में आम की पत्ती को डालकर अशीष नवाकर गांव के मुखिया पधना के घर उनसे मिलने जाती है। तथा भेंट स्वरूप आम की पत्ती सर्मपित करती है। जोकि आपसी सौहार्द को बढाता है, परम्परा यह भी है कि जिस घर की नवबधू चराई में नही पहुचती है तो उस घर मुखिया को आर्थिक दण्ड किया जाता है।
भजनी चराई – तृतीय चराई भजनी चराई के नाम से जानी जाती है जिसका बृहद स्वरूप है इस चराई मे घर के बडे बुर्जुग को छोड कर समस्त परिवार के साथ मनाई जाती थी। जोकि लगभग एक सप्ताह तक घर से बाहर रहना होता था। जिसका आसय महामारी से बचाव एवं गांव में विवाद का निपटान करना, तथा गांव मे जुर्माना व किसी भी प्रकार के लगाये गए कर की बसूली करना होता है। तत्पश्चात नगर की भुइया में आम की पत्ती को डालकर अशीष नवाकर गांव के मुखिया पधना के घर उनसे मिलते है। तथा भेंट स्वरूप आम की पत्ती सर्मपित करती है। जोकि आपसी सौहार्द को बढाता है। परन्तु अब इस पर्व का चलन एक द्विवशीय हो गया है।

राना थारू समाज में चरांई का शाब्दिक अर्थ एवं पर्व की उत्पत्ति

चरांई का शाब्दिक अर्थके बारे मे बहुत से लाेगोका अपनी अपनी मत है । फिर भि निचे कुछ मतो के बारेमे चर्चा किया गया है ।
चरांई शब्द की उत्पत्ति स्व.श्री मुल्ली राना निवासी दिभरिया नेपाल के अनुसार चर शब्द का अर्थ चारागाह ( जानवर चरानें का स्थान) तथा आई शब्द का अर्थ उस स्थान पर आना ( मय जानवर चरानें वाले चरवाहा/ गयांरो भइसउरा) अर्थात चरांई शब्द का अर्थ जंगल में घास के मैदानों में गौशाला बना कर अथवा कल्पवास कर समूह में रहकर जानबरों को चराने से है। जिससे जंगली जानवरों से अपने मवेसियों की सुरक्षा कर सकें।
पर्व की उत्पत्ति – स्व.श्री रमाशंकर पधना निझोटा भारत के अनुसार राना थारू समाज तराई क्षेत्र में घनें जंगलों के बीच मैदानों मे गाॅव बनाकर रहते थे, समस्त गाॅववासी मिलकर ईष्ट देवता भुइयाॅ की स्थापना करते थे जिसे नगर देवता अर्थात नगर की भुईयां कहते है। कालान्तर में कोई भी स्वास्थ सुविधा नही थी समस्त गाॅववासी भर्रा के द्वारा झाडफूक एंव जडीबूंटी पर निर्भर थें,कारगर उपचार न होने की दशा मे जैसे कालाज्वर, मलेरिया, हैजा महामारी से गाॅव में बडी संख्या में मौत हो जाती थी। वही यह देखा गया कि जो गाॅव से बाहर निवास कर रहे चरबाहा बीमारी से सुरक्षित रहे। इसको देखते हुए जब कभी महामारी का प्रकोप होता था तो गाॅव का जन समुदाय नगरदेवता की पूजा कर चरवाहों के स्थान पर /गौउढी में कुछ दिनो के लिए कल्पवास करते थे जिससे महामारी से अधिकांश जन सुरक्षित रहते थे। जिसे गाॅव पधना व भलमंशा द्वारा गाॅववासियों के हित में महामारी से बचने के लिए वार्षिक निरन्तर्ता बना दिया गया। उक्तानुसार चरांई पर्व की उत्पत्ति हुई।


श्री भंगी राना (भगत) निवासी मन्हेंरा नेपाल के अनुसार गाॅव में महामारी चल रही थी जिसे देखने हेतु स्वर्ग से शीतला माता मृतलोक मे आयी और बुढिया का भेष रख कर गाॅव में घूम रही थीं तभी गांव की एक महिला चावल का पसौना फेंका जिससे वह जल गयी और अपनी मदद के चिल्लाने लगीं उनके शरीर में छाले पड़ चुके थे तब एक गरीब कुम्हारिन उन्हें अपने घर ले गयी एवं सेवा सतकार किया मीठा भोजन कराया। जब शीतला माता को राहत मिली तो वह सोने लगी , तथा कुम्हारन उनके बालों को सहलाने लगी तभी उन्हों ने देखा कि उनके सिर में एक तीसरी आॅख है जिसे देखकर कुम्हारन डर के मारे चिल्लाने लगी तब शीतला माता ने अपना असली रूप दिखाया तथा कुम्हारिन के सेवा भाव से खुश होकर वरदान मागने को कहा। कुम्हारन ने वरदान के रूप में महामारी से रक्षा करने को कहा। माता शीतलादेवी के द्वारा महामारी से बचने हेतु पूजा का विधिविधान बताकर अन्तर ध्यान हो गयीं। तब से चरांई मनाई जाती है।
श्री गोबिन्दराज राना जुगेड़ा नेपाल के अनुसार राना थारू चरांई की उत्पत्ति द्वापर युग में राजा अंग का लड़का राजा वेन जिनकी सात लड़की थी। 1 दुर्गा भवानी 2 कालिका भवानी 3 ज्वाला भवानी 4 होलिका भवानी 5 शीतला भवानी 6 गंगा भवानी 7 अंगारमती भवानी।
जब राजा के राज्य मे गरीबी आई तो खाने पीने को कुछ नही बचा तब एक ही सहारा रहा वन गमन राजा ने अपनी सातों बेटियों को भरणपोषण हेतु जंगल से कंद फलफूल लाने हेतु प्रस्ताव रखा जिसमें छोटी बेटी अंगारमती जाने से इनकार कर दिया। बाकी छय बहिन लौका में पानी लेके अपने पिता के साथ वन को चली गयीं । कंद फलफूल को ढूढते ढूढते पिता से बिछड़ गयी। पिता को न पाकर अपनी सुरक्षा हेतु छ बहनों ने अपने शरीर का मैल छुडाकर अपने भाई को बनाया जिसे हम करिया कहते है। तथा मानव समाज के खेरों में अलग अलग जगह विराजमान हो गयी। जिन्हें मानव समाज के हितार्थ पूजा जाने लगा । तब से राना थारू समाज में विशेष मिष्ठान मिसौउला बनाकर पूजने लगे जिस पर्व को चरांई कहते है।
स्वास्थ से जुड़ी मान्यता – चराई पर्व होली से जुड़ा पर्व है। राना थारू समाज के पधना भलमंशा द्वारा स्वास्थ हित में नियम बनाया गया। कि ग्रीम ऋृतु मे तैलीय व्यजंनों का उपयोग न हो जिसके लिए होलिका दहन हेतु पूड़ी पकाई जाती है। उस दिन के बाद से अषाढी पूजा होने के बाद तक तैलीय व्यजंनों को जैसे पूड़ी आदि बनाने हेतु प्रतिबन्ध लगा दिया जाता था शादी विवाह आदि में ताई का पूजन/ उपयोग नही कर सकते थे। उलंघन करने वाले को दण्डित किया जाता था। जोकि अब प्रचलन में नही है।



चरांई पूजा में लगने वाली पूजा सामग्री व व्यंजन – चराई से एक दिन पूर्व गांव के पधना द्वारा चैकीदार के माध्यम से प्रत्येक घर से भेंट तथा सतनजा उगाही करते है। सप्तरंगी कपड़ा चीर होती है। व्यंजन में दही मिसौउला,उसना आलू,भरूआ भटा, शगुन स्वरूप मछली की सब्जी आदि रहती है। सभी के घर से प्रसाद के रूप में एकत्रित व्यंजन तथा भेट को चढाकर भर्रा द्वारा गांव वासियों के सुख समर्द्धि हेतु पूजा की जाती है। पूजा न होने तक सभीजन उपवास में रहते है। उसके वाद ही सभी जन आपस में मिलकर भोजन ग्रहण करते है।
उक्त रचना माता पिता को समर्पित।

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