राना थारूओं में तीज पर्व का महत्व ( हिन्दि भाषा)

१८ श्रावण २०८०, बिहीबार
राना थारूओं में तीज पर्व का महत्व ( हिन्दि भाषा)

    

राना थारू महिलाओं का यह विशेष पर्व है। सावन के महीनें में शुक्ल पक्ष के तृतीया को यह त्योहार तीज मनाई जाती है। सावन के महीने में धान रोपाई, व अन्य फसलों की बुवाई के बाद फुरसत के क्षणों में अधिकांश महिलायें तीज का त्योहार मनाने हेतु लगभग 15 दिन के लिये अपने मायके अथवा घनिष्ठ रिस्तेदार के घर रहकर मनाती हैं। जिसमें 15 दिन के लिए झूला डाला जाता है। झूला डालने में सहयोग उनके भाई, व भतीजे करते है, झूला डालने में लगने वाली सामग्री लकडी व रस्सी बनाने हेतु बैइब, या रगोह की लार आदि, संयुक्त रूप से लडकियां व उनके भाई, व भतीजे जंगल से सामग्री लाते है। तथा रस्सा बनाने व झूला डालने का कार्य आपस में सभी मिलकर करते है।

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लेखक – ओम प्रकाश राणा(प्रधान)

जिससे भाई बहनों के बीच आपसी प्रेम सदभाव एवं आत्मीयता बढती है। सावन मास में चहुॅ ओर हरियाला होती है, जिसमें बडे उमंग के साथ कृष्ण पक्ष के 15 दिन बडे हर्सोउल्लास मेे महिलाये झूला झूलती है, एवं साथ ही मंगल गीत गाती है। तथा शुक्ल पक्ष के तृतीया के दिन अपने भाई, व भतीजो के दीर्घायु सुख समृद्धि हेतु उपवास रखती हैं तथा सिमई,पूडी सब्जी गुलगुला आदि पारम्परिक व्यंजन बनाती है। तथा उपवास रखने वाली महिलायें ढलती शाम में नदी को जाती है। नदी किनारे बैठ कर झुडकी पुहाती है। झुडकी (पैंती)कुस घास की बनाती है जिसमें विवाहित महिला सात गॉठ तथा अविवाहित महिला पॉच गॉठ बॉधती है। जिसे पूजती है एवं स्वनिर्मित व्यंजन को चढाती है इसके बाद चाँदी के गहने अथवा सिक्के से सहारा लगाकर झुडकी पुहाती है। मान्यता है कि निअवरोध नदी की धारा मे जितनी दूर झुडकी जायेगी, उतना ही उनके भाई, व भतीजे दीर्घायु तथा सुख समृद्धि बढेगी। तथा वहीं पर उपवास तोड कर भोजन करती है। नदी से वापस आते समय राह में उनके भाई, भतीजे उनसे अठखेलियॉ करते हैं उनसे खाने हेतु व्यंजन (प्रसाद) मागते हैं  मनुहार करते है। उनके द्वारा न देने पर उन्हें पटाकी (घास की मोटी रस्सी )से फॉसते है। तथा जब तक वह प्रसाद नही देती है। तब तक नहीं छोडते है। यह दृष्य भाई बहनों के बीच बढा मनोहर होता है।

तीज त्योहार मनाने की मान्यता

      तीज त्योहार मनाने की हिन्दू धर्म मे कई मानता है। कुछ समुदाय की महिलायें अपने पति की दीर्घायु के लिये मनाती हैं तथा कुछ समुदाय की महिलायें अच्छा वर पाने हेतु तीज त्योहार मनाती है।

      परन्तु राना थारू समुदाय में मान्यता है कि प्राचीनकाल में बेहमइया नाम की देवतिन बूढी मॉ सावन मास के शुक्ल पक्ष के तृतीया के दिन अपने भाई भतीजों के दीर्घायु तथा सुख समृद्धि के लिये यह वृत रखा था। मान्यता है कि प्रचीनकाल में बहुत ज्यादा हारी बीमारी रहती थी जिससे व्यथिति होकर बेहमइया नाम की देवतिन बूढी मॉ नदी किनारे बैठकर अपने भाई भतीजों के नाम गॉठ बॉध कर झुडकी (पैंती) पुहा रही थी। जो झुडकी दूर चली जाय तो हसने लगे। एवं जो ना पुहे तो रोने लगे। यही क्रम बार-बार कर रही थी। कभी हंसना कभी रोना, तभी मृत्यु लोक के भ्रमण के लिए माता पर्वती वही से गुजर रही थी माता पार्वती ने देखा कि एक बूढी मॉ नदी किनारे बैठी है, कभी हंसती है कभी रोती है, उन्होने पास जाकर उस बूढी मॉ से उक्त का कारण पूछा। देवतिन बूढी मॉ ने बताया कि मै अपने भाई भतीजों के नाम गॉठ बॉध कर झुडकी पुहा रही हॅू  जो झुडकी दूर पुह जाती है तो मै मानती हूॅ कि वह बच जायेगा तो हंसती हूॅ तथा जो नही पुहती है तो रोने लगती हूॅ, यह मान कर कि वह नही बचेगा। कारण जान कर माता पार्वती ने बताया कि जाओ, सावन मास के शुक्ल पक्ष में पडने वाली तृतीया को वृत रखकर नदी में जाकर भाई भतीजों के कल्याण के लिए झुडकी प्रवाह करना तो कल्याण होगा,तब से तीज त्योहार मनाने की परम्परा बनी  हुई है।

नोट- उक्त लेख पूर्वजों के द्वारा सुनायी गयी कथा पर आधारित है।

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